April 26, 2024

नारी सशक्तिकरण के युग में अपने को तलाशता पुरुष

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प्रो नंदलाल मिश्र
महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय,चित्रकूट सतना म प्र
नारियों की भूमिकाएं बदल रही हैं। उनका परंपरागत स्वरूप भी बदल रहा है। लेकिन यह कहना क़ी पूरे भारत मे ऐसा ही है,ठीक नही होगा। क्योंकि भारत वर्ष का भू भाग अत्यंत विशाल और विशद है।नाना प्रकार की भूमिकाएं हैं और नाना प्रकार की उप -संस्कृतियां हैं।लेकिन जो सामान्य स्वरूप निकल कर सामने परिलक्षित हो रहा है वह यह बताने के लिए पर्याप्त है कि महिलाओं की स्थितियों में सुधार हो रहा है।उनके साथ होने वाले भेद भाव मे कमी आ रही है।शायद समाज मे बढ़ रही शिक्षा और साक्षरता के कारण या पुरुष वर्ग की मानसिकता में हो रहे बदलाव का यह प्रतिफल है।लेकिन इतना जरूर है कि आज की महिला पहले से कही अधिक आजाद है अपने हित का वह निर्णय लेती है तथा निर्णय लेने का प्रयास करती है।
उसका स्वाभिमान उसे निर्णय लेने के लिए अभिप्रेरित कर रहा है।उसके अंदर आत्मविश्वास भी आ रहा है तथा जिस काम को वह अपने हाथ मे लेती है उसे बखूबी निभाती भी है।उसने राष्ट्र स्तर पर अपने परचम को लहराकर सिद्ध कर दिया है कि चाहे एवेरेस्ट हो चाहे आसमान हो या पाताल हो हर जगह उसने अपने को प्रमाणित किया है कि वे किसी भी क्षेत्र में पुरुषों से कम नही हैं।
कम हो भी क्यों?ईश्वर ने सभी को न्यायोचित बुद्धि और शरीर दी है।अवसर न मिल पाने की वजह से उनका कौशल दिखता नही था।शिक्षा जगत हो स्वास्थ्य जगत हो प्रशासन हो या रक्षा का क्षेत्र हो उसने अपनी क्षमता को दिखाया है।तकनीकि क्षेत्र में भी उसने अपना झंडा बुलंद किया है।
तथापि पहले की नारियों से अबकी नारियां अलग क्यों हैं।पहले नारियों का स्थान और विस्तार क्षेत्र घर की चाहरदीवारी होती थी।हम लोगो ने देखा है कि उनके जिम्मे झाड़ू चौका बर्तन रसोई और खाद्य सामग्री तैयार करना होता था।वह भी दो चार लोगों का नही बल्कि बीस से तीस लोगो का।जौ गेहूं ज्वार बाजरा सवां कोदवा रागी धान अरहर मसूर मटर सभी अनाजों को वे ओखली,चक्की इत्यादि में डालकर कूटकर छान पीस कर खाने योग्य बनाती थीं।मसाला घर मे सिलबट्टे पर बनाती थीं।अब शायद ही कोई महिला ऐसे कार्यों को करने की सोचे।उनसे ये कार्य होंगे ही नही।कारण कि उनके प्रशिक्षण का तरीका बदल गया है।ऐसा भी नही है कि सारी महिलाएं आई ए एस हो रही हैं या ऊंचे ओहदे पर पहुंच रही हैं पर एक बयार बह रही है कि लड़कियों को लड़के के समान बनाना है।जब लड़कियां लड़का बनने लग जायेगी तो निःसंदेह उनकी भूमिका बदल जाएगी।आज के समय और युग मे यही हो रहा है।अधिकतर लड़कियों ने पुराने समय मे किये जाने वाले कार्यों का त्याग कर दिया है और नए जमाने के रीति रिवाजों को ओढ़ लिया है।
दिक्कत यह नही है कि उन्होंने नए जमाने के रीति रिवाजों को ओढ़ लिया है बल्कि दिक्कत वहाँ खड़ी होती है कि जब लड़की हर क्षेत्र में असफल होती जाए और दिखावा नए जमाने का हो तो परिवार में कलह शुरू हो जाता है।सफल महिलाएं दो चार पैसे कमाने पर अपना सहायक ढूँढ़ सकती हैं पर जो महिला किसी भी कौशल में निपुण न हो और दाई नौकर रखने की वकालत करती हो वहां समस्या अपने आप खड़ी हो उठती है।
संयुक्त परिवार में महिलाएं रीढ़ होती थीं।उन्ही के कंधों पर समूचे परिवार की जिम्मेदारी होती थी।हाँ परिवार में एक मुखिया होता था जो परिवार का प्रबंधन करता था।बाकी सभी सदस्य उसका अनुसरण करते थे।समय बदला।समय के साथ साथ परिवार का स्वरूप भी बदलने लगा।कसी हुई व्यवस्था ढ़ीली पड़ने लगी।लोगो मे वह त्याग नही रहा।सफलता के मापदंड बदल गए।नौकरी पा जाना सफलता की निशानी हो गयी।हाथ मे दो पैसा आने से उसकी कद्र बढ़ गयी।अब उसे डांटने वाला कोई नही रहा बल्कि वह कमाऊ पूत बन गया।नियंत्रण की रस्सियाँ ढ़ीली कर दी गयी।कमाऊ पूत को खाना बनाने वाली चाहिए सो अपनी पत्नी को शहर लेकर जाना उन्हें सुहाने लगा।मुखिया क्या करता जाने से मना नही कर सकता।इस तरह परिवार का विघटन शुरू हो गया।
परिवार एकाकी होते चले गए।अब बहुत कम संयुक्त परिवार बचे हैं।ऐसे बचे परिवारों को पुराने खयाल वाला बताया जाता है।एकाकी परिवारों में अब अपने बच्चों को पढ़ाना एक मात्र काम रह गया।ऐसे लोगो का सपना एक मकान बना लेना और एक छोटी मोटी गाड़ी खरीद लेने का होता है।उनकी जिंदगी इतना करने में गुजर जाती है।ऐसे परिवारों में जो छूट गया वह यह कि बुजुर्ग माता पिता को देखने वाला कोई नही।सगे भाई बंधु यदि बेरोजगार हैं तो उन्हें किनारे कर दो।रिश्ते नाते सभी छूट गए।यदि गांव पर थोड़ी बहुत जमीन है तो उसे देखने वाला कोई नही।आदमी बहुत खुश होता है तो माँ बाप से कहता है कि वे लोग शहर आ जाएं और कुछ दिन उनके साथ रहें।सीधे साधे मां बाप चले तो आते हैं पर उनसे बातचीत करने वाला कोई नही होता।उनकी आवश्यकताओं का ध्यान करने वाला कोई नही होता।पंद्रह बीस दिन में ऊबकर पुनः गावँ वापस आ जाते हैं।जिन बच्चों को मां बाप ने अपना पेट काट काटकर किसी लायक बनाया वे बेगाने हो गए।
एकाकी परिवार में पले बढ़े बच्चों की दुनियां अलग रहती है।उनकी अवधारणा अत्यंत संकुचित हो जाती है।भीड़ उन्हें अच्छी नही लगती।गावँ उन्हें नही सुहाता न ही अपने गावँ के वातावरण से वे सामंजस्य बिठा पाते हैं।स्वतंत्र माहौल में पले बच्चों की आदतों में स्वतंत्र रहकर कार्य करना एक महत्वपूर्ण अवयव बन जाता है।ऊपर से डिजिटल दुनिया और मोबाइल कल्चर ने उनकी आदतों को बेतरतीब ढंग से बदल दिया है।विशेषकर लड़कियों के व्यवहार में अजीबोगरीब परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं।सोचिए एक जमाने मे महिलाएं परिवार की धुरी होती थीं अचानक वह परिवार नाम से डरने लगी हैं।बहुत सी लड़कियां शादी के बोझ को भी नही ढोना चाहती।नारी सशक्तिकरण ने महिलाओं के लिए एक दूसरा रास्ता बना दिया है जो परिवार नाम की संस्था को गौड़ मानता है।महिलाएं वह सभी कार्य करना चाहती हैं जो कभी पुरुषों के जिम्मे होता था।इससे पुरुषों को मदद तो मिलती है पर एक पक्ष जो महिलाओं के जिम्मे होता था वह छूटता चला जा रहा है।अब न तो वे संयुक्त परिवार रहे न वह रसोई रही न वे मेहमान रहे जो कभी कभी रिश्तेदारी की शोभा बढ़ाते थे।ऐसे में पुरुष अपनी भूमिका को तलाश रहा है कि वह क्या करे?
पुरुष ने जिस व्यूह रचना को अपने बाप दादाओं से रच कर खाना बनाने के लिए अपने पत्नी को शहर ले जाने की अनुमति लेकर संयुक्त परिवार की बलि चढ़ाई थी आज वही पुरुष उसी व्यूह रचना में फंसा नजर आ रहा है।अब उसे वे सारे काम करने पड़ रहे हैं जो कभी महिलाओं के जिम्मे होते थे।न करने पर घर मे अशांति का डर अलग से।स्वतंत्र रूप से पले बढ़े बच्चे अपने जीवन मे स्वन्त्रता ही चाहते हैं।पर हर जगह स्वतंत्रता दी नही जा सकती लिहाजा कलह होना स्वाभाविक है।ऐसे कलहपूर्ण जीवन मे पुरुष को क्या करना चाहिये यह यक्ष प्रश्न है।नारी सशक्तिकरण का सिद्धांत समानता पर बल देता है इसलिए कामकाजी महिलाएं किचेन में पुरुषों से सहयोग की अपेक्षा करती हैं और पुरुष उससे बचने के लिए होटल सिस्टम की मदद लेता है।और तो और आप देखते होंगे कि आजकल फूफा,जीजा,मामा के रिश्ते कम चलते हैं लेकिन साढ़ू ससुराल साला, साली ,सरहज के रिश्ते निकल पड़े हैं।इनके आने पर कोई तकलीफ नही होती पर मामा फूफा और जीजा के आने पर लगता है अतिथि कब जाओगे।
बदलते वक्त में पुरुष अपनी भूमिका टटोल रहा है।यदि वह इसका रास्ता नही निकाला तो उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी।अपने बुने जाल में वह फंस चुका है।महिलाओं और पुरुषों को एक रास्ता निकालना होगा जिससे जीवन आसान बने अन्यथा महिलाओं के चक्कर में पड़कर मकड़ी बनकर जाल के भीतर फंसकर अपने प्राण को त्यागना होगा।

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