धर्मनिरपेक्षता की प्रभावशीलता
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प्रो नंदलाल मिश्र
महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय,चित्रकूट,सतना,म०प्र०
भारतीय संदर्भों में उन्नीस सौ नब्बे का दशक सामाजिक,राजनैतिक एवं आर्थिक परिप्रेक्ष्य में सतत याद किया जाता रहेगा।कांग्रेस पार्टी का अंतर कलह और उसी पार्टी के रक्षा मंत्री का प्रधानमंत्री पर गंभीर आरोप लगाकर राजनीति में भूचाल पैदाकर स्वयं प्रधानमंत्री बन जाना भी एक अत्यंत खतरनाक शुरुआत थी।कांग्रेस के प्रधानमंत्री और वह भी गांधी परिवार पर बोफोर्स का आरोप साधारण शुरुआत नही थी।पर भारतवासियों ने इसे देखा और सुना भी।कांग्रेस के जड़ में मट्ठा पड़ना यही से शुरू हुआ।हालाकि यह एक दुःसाहसिक कार्य था और सरकार चली गई।प्रधानमंत्री बने वी पी सिंह ने गड़े मुर्दे उखाड़कर राजनीति की धार को मंडल और कमंडल के तरफ मोड़ दिया।देश में राजनीतिक भूचाल का वह दौर था।आरक्षण समर्थक और विरोधी आमने सामने थे।इसी बीच से मंदिर की मांग को लेकर आडवाणी जी का रथ आकाश और पाताल दोनो नाप रहा था।देश में दो ध्रुवीय राजनीति उलांचे भर रही थी।दोनो ही ध्रुव शनै शनै आगे बढ़ रहे थे पर कांग्रेस की राजनीति पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की शहादत पर सहानुभूति के नाव पर पार लगी और नर सिम्हा राव प्रधानमंत्री बने तथा उन्होंने कांग्रेस की सरकार बनाई।राव साहब ने अनेक नवाचार किए और देश को एक नई आर्थिक दिशा दी।स्थानीय सरकार,(पंचायती राज)को उन्होंने सशक्त किया तथा लोगो को निर्णय लेने का अधिकार स्थानीय स्तर पर मिल गया।
मंडल और कमंडल का धुंआ अंदर ही अंदर सुलग रहा था।उसने एक बार फिर अपनाजलवा दिखाया और उन्नीस सौ छानवे में तेरह दिन के लिए बाजपई जी की सरकार बनी किंतु संख्या बल के अभाव में सरकार टिक नहीं सकी और देवगौड़ा की सरकार बनी।उसमे भी खटपट के कारण देवगौड़ा को हटना पड़ा और गुजराल नए प्रधानमंत्री बने।फिर तेरह महीने के लिए बाजपई जी की सरकार बनी।अच्छी चल रही सरकार पुनः सत्ता में वापस आई और पांच साल का कार्यकाल पूरा की जो पहली सरकार थी जिसने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया।कुल मिलाकर हिंदुत्व या यों कहिए कि कमंडल मंडल पर भारी रहा।पुनः दो हजार चार में कांग्रेस सत्ता में वापस आई लेकिन क्षेत्रीय दलों के सहयोग से सरकार बना पाई।दो हजार चौदह तक कांग्रेस सहयोगी दलों के साथ सत्ता में बनी रही और दो हजार चौदह के चुनाव में भाजपा से परास्त हुई।अभी चौदह से लगातार सत्ता में बनी हुई है। यानि उन्नीस सौ नब्बे के बाद राजनीति ने जो करवट ली उसमे कमंडल की राजनीति हाबी रही।
मंडल की छतरी के नीचे जो दल खड़े थे उनमें आरक्षण नामक तत्व सभी को जोड़े था जो जातियों के हिसाब से मिलता है।जातियों की आपसी प्रतिस्पर्धा इतनी अधिक है कि वे एक छतरी में समा नही पाते।हमेशा टूटकर बिखर जाने की उनकी नियति है।पर वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के अंदर इतनी ऊर्जा है जो भाजपा पर अकेले भारी है।उन्होंने पार्टी को ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया है जहां विरोध के कोई भी स्वर निकल नही सकते।इसलिए पार्टी में एक कसावट है और अनुयायी वही करते हैं जो ऊपर से चाहा जाता है।वहां एक स्वर है एक आवाज है।सफलता का कोई विकल्प नहीं होता इसलिए वहां सब कुछ अच्छा ही होता है।पार्टी ने हिंदुत्व को साधा और हिंदुत्व भारत में सबसे बड़ा वोट बैंक है।जब तक यह सधता रहेगा दूसरे दलों के लिए समस्या बरकरार रहेगी।इस हिंदुत्व में सेंध लगाने का रास्ता वही मंडल के लोग खोजते हैं पर नजदीक आते आते बिखर जाते हैं। हिन्दुत्व में ही विभिन्न जातियां आती हैं और जातियों की राजनीति करने वाले स्वयं ही कई जातियों में बिखरे हैं।उनमें भी ऊंच नीच का स्तरीकरण है।इसलिए वे इस ऊंच नीच के दलदल में धंस जाते हैं।
रही बात सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी की जो कांग्रेस है वह धर्म निरपेक्षता और सर्व धर्म सम भाव को लेकर चली थी,उसका रास्ता उन्नीस सौ नब्बे तक तो प्रासंगिक था पर अब हालात ऐसे बन चुके हैं जहां अस्सी और बीस की बातें होती हैं।इस अस्सी में हिंदू बीस के खिलाफ मजबूती से खड़े हैं जहां उनको सर्व धर्म समभाव दिखाई ही नहीं देता।जब कोई बीस के लिए अस्सी के साथ वैसा ही करेगा तो उसे अपने देश में क्या मिलेगा।यहां इस विचारधारा को आनुपातिक संघर्ष का सामना करना पड़ रहा है।जब तक कांग्रेस को अस्सी में घुसने का रास्ता नही मिलेगा उसके लिए राह आसान नहीं होगी।अस्सी में वह कैसे और किस प्रकार प्रवेश करे उसे सोचना होगा।वास्तव में भारत हिंदुओ का ही देश है।इसलिए हिंदुओं के लिए,उनके कल्याण के लिए,उनके विकास के लिए जब तक आप आगे नहीं आयेंगे हिंदू आपके लिए कैसे आगे आएंगे।जाति पाती में फंसे राजनीति में बड़ी दुविधा है।
कांग्रेस के लिए सबसे चुनौतीपूर्ण कार्य एक ऐसे नेता की खोज है जो वर्तमान राजनीति पर भारी हो।ऐसा नेता कहां मिलेगा इसे भी देखना होगा।ऐसा नेता कांग्रेस की धुरी हो,हालाकि यहीं पर कांग्रेस की दुविधा आ खड़ी होती है।गांधी परिवार के बगैर कांग्रेस की कल्पना बेमानी है क्योंकि जिस दिन गांधी परिवार से इतर कोई व्यक्ति पार्टी को सम्हालने का प्रयास करेगा पार्टी के वरिष्ठ नेताओं में सिर फुटौवल शुरू हो जाएगी।इसलिए जरूरी है कि इसके लिए किसी गैर राजनीतिक व्यक्ति या प्रोफेशनल व्यक्ति की तलाश की जाय जो बेदाग हो और वर्तमान राजनीतिक तिकड़म पर भारी हो किंतु पार्टी के लिए लायल हो।यह चिंतन तो पार्टी को ही करनी होगी।
धर्म निरपेक्षता आज के संदर्भ में एकतरफा हो जाती है और इसका अर्थ यह लगाया जाता है कि यह तुष्टिकरण का स्लोगन है।इसलिए यदि मैदान में टक्कर देनी हो तो इस विचारधारा के साथ साथ एक ऐसे नारे की जरूरत होगी जो संघर्ष में पार्टी को नई ऊर्जा दे जैसे भाजपा के हिंदुत्व विचारधारा के साथ सबका साथ सबका विकास का नारा है।राष्ट्रहित की चिंता इन्ही दो पार्टियों को करना है।क्षेत्रीय क्षत्रप तो अपने अपने राज्यों में टांग पर टांग रखकर आराम से सोकर राज्यो की सत्ता चला ही रहे हैं।उन्हें हर तरफ से फायदा ही फायदा है।जब जरूरत आती है केंद्र में भी मलाई खाने लगते हैं।नही तो राज्य में उनकी सरकार तो है ही।कभी कभी ये दल कांग्रेस का विकल्प बनने का दावा भी करने लगते हैं।
पार्टी को लड़ाई में खड़ा करने के लिए जिस संघर्ष की जरूरत है वह दिखाई नही देता।आज वह पार्टी सत्ता में है जो बहुसंख्यक हिंदुओ की भावना का ध्यान रखती है।अपने ही देश में हम हिंदू यदि अपने धार्मिक रीति रिवाजों से नही चल पाएंगे तो कहां चलेंगे।गरीबों को राशन शौचालय गैस पेंशन मकान मुफ्त में मिले तो वे दूसरे के पास क्यों जायेंगे।युवाओं को गेरुआ गमछा लगाने का लाभ मिल रहा है तो युवा और कहां भटकेंगे।सचिन पायलट को उनके मेहनत का फल ऐसा मिलना हो तो सिंधिया ने गलत क्या किया।सिंधिया सचिन देवड़ा वासनिक जितिन आर पी एन सिंह और ऐसे ही न जाने कितने युवा कांग्रेसी भटकन में फंसकर इधर उधर भटक गए।
संघर्ष में यदि जान फूंकनी है तो इस पर तत्काल निर्णय लेना होगा वरना जनता अपना विकल्प तो चुन चुकी है।एंटी इनकंबेंसी की राह बहुत कठिन है।भाजपा जिस छतरी के नीचे खड़ी है उसमे पिन चुभाना एक दुष्कर कार्य है जब तक कि वह स्वयं इसमें छेद न कर दे।