
विवेक चतुर्वेदी
आज मुंसिफ हैं निकलेंगे कल वे ही मुज़रिम
मुल्क बहुत रोएगा देखना कभी गाते गाते।
जम्हूरियत जिस तरह बेबस है कि यहाँ
देख लेते अगर गॉंधी दोबारा मर जाते।
नदी में पूर आने से भी ऐसा डरना क्या
निशॉं हाथों के तो रेत में बनाकर आते।
उस निर्जन मंदिर में देव था कितना तन्हा
जोड़ आना एक दिया तुम कभी आते जाते।
कोई मरासिम नहीं है महज़ आदत है
पलटकर देखा है जो उसने मुझे जाते जाते।
उदास शाम है आओ बैठो जरा शराब पिएँ
शेख साहब भी आ जाएंगे रात के आते आते।
चित्र – अवधेश बाजपेयी (देश के विख्यात चित्रकार)