

वो किताबों में दफ़न और ये बरसात की रुत
भीगने आंगन में कोई पंख मचलता है बहुत।
एक आकुल सी नदी घाट पे निर्जन मंदिर
आज मन में क्यूं ये बिम्ब भटकता है बहुत।
सुन चांदनी तू चूल्हे पे जरा चाय तो रख
मैं हूँ जुगनू मुझे रात में जगना है बहुत।
ओ शेख जन्नत तो यूं भी जा न पाऊंगा मैं
देख दोजख़ का इस शाइर पे कर्जा है बहुत।
राह में रोकेगा और पहचान कोई मांगेगा
‘ईदगाह’ जाने में ‘हामिद’ आज सहमता है बहुत।
हाथ में झंडे लिए फिरता एक भूखा बच्चा
पचहत्तर बरस की आज़ादी का ये हासिल है बहुत।।
विवेक