जाति जाति रटते जिनकी केवल पूंजी पाखंड
प्रो नंदलाल मिश्र
महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय
चित्रकूट सतना म प्र
इस समय देश के आबो हवा में जाति का गुलाल उड़ रहा है।संविधान ने क्या यही शिक्षा दी है।जिसके मन में जो आ जाए वह वही बोले।जितने धर्म ग्रंथ लिखे गए हैं,उनकी विषय वस्तु या तो लिखने वाला बदल सकता है या उस पर सरकार बैन लगा सकती है।आज समाज में जो समस्या उठ खड़ी हुई है यह तो उठनी ही थी।जब हम धर्म जाति मजहब और संप्रदाय के नाम पर राजनीति करेंगे तो यही उसकी परिणति है।अभी समाज में यह बहुत छोटी समस्या खड़ी हुई है। जाति गणना एक वृहद समस्या पैदा करेगी।आज राजनीति की दिशा जिस तरफ मुड़ी हुई है वह समाज में विभेद पैदा करती है।आज से लगभग चालीस वर्ष पूर्व राजनीति में कुछ मूल्य शेष थे।पंथ निरपेक्ष राजनीति थी किंतु मंडल, मंदिर मस्जिद विवाद ने एक नई तरह की हवा को जन्म दिया और समाज में ऐसा विष रोपण हुआ जो आगे के समाज को समय समय पर उसी लपटों की तरफ धकेलता है।जिस व्यक्ति की कोई अहमियत नहीं जिसको कोई जानता तक नही,जिसके योगदान को कूड़े से ज्यादा कुछ भी नही कहा जा सकता वह भी आज स्वतंत्र है।कुछ भी बोल सकता है।क्या राजनीति का यही अर्थ है कि वह समाज को खंड खंड में बांट दे।
हम यह क्यों भूल जाते हैं कि आज संख्या बल से हम किसी को कुछ भी बोल सकते हैं पर इजरायल अपने चतुर्दिक फैले उन लोगो पर नकेल लगाए हुए है जो उसे ललकार रहे थे।किसी का संख्या बल होना उसके शक्तिमान होने का प्रतीक नही है अन्यथा आज हम विश्व में नंबर वन होते।देश में सहिष्णुता और शांति की जरूरत है न की तुच्छ स्वार्थ के लिए गड़े मुर्दे उखाड़ना।मुझे पता नहीं ऐसा क्यों लगता है की जो बड़े हैं समृद्ध हैं विकास की दौड़ में आगे हैं वे अपने बड़े होने का शायद ही गुमान करते हों पर जो निकम्मे लोग आलसी लोग सुस्त लोग राम भरोसे रहने वाले लोग अपने निकम्मेपन पर चिंता न करते हुए विकास करने वालो से चिढ़ते हैं और प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं वे सोचनीय हैं।ठहरे हुए जल में पत्थर मारने की नाकाम कोशिश करते हैं।विकास के पथ पर अग्रसर उत्तर प्रदेश में नाना प्रकार की गतिविधियां राजनीति की आड़ में चलाई जा रही हैं।सत्ता पाने की जुगत में लोग दिलों में दरार पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं।ऐसी सत्ता किस काम की,?जिस दिन लोगों को सचमुच पता चल जायेगा कि एक व्यक्ति न स्वयं जीने का प्रयत्न कर रहा है न दूसरों को जीने दे रहा है वह दिन शायद भयावह हो।
जिस भारतीय संस्कृति की आधारशिला हमारे धार्मिक ग्रंथ हों।जिस परंपरा और संस्कार की आधारशिला हमारे वैदिक ग्रंथ हों उन्हें जलाने की नाकाम कोशिश क्या हमारी आस्था को कम करने में समर्थ होंगे।ये धर्म ग्रंथ उन लोगो को कैसे समझ में आयेंगे जिनको समझने के लिए हमे कई जन्म लेने पड़ते हैं।कठोपनिषद में एक जगह यह वर्णन आया है कि बहुत प्रवचन सुनने से,बहुत ज्ञानी होने से,श्रुतियों को कंठस्थ करने से,हम अपने आप को नही जान सकते। न ही अपनी आत्मा को जान सकते हैं।यह सिर्फ उन्ही को मालूम हो सकता है जिस पर उस परम पिता परमेश्वर की असीम कृपा है। सोई जानत जेहि देहि जनाई।अल्पज्ञ लोग ,,दूसरों की प्रगति से चिढ़ने वाले लोग,धर्म ग्रंथों की अहमियत को तब समझते हैं जब उनके सिर पर अकाल छाया अचानक मंडराने लगती है।बहुत से राजनेता अपने शक्ति के गुमान में फिल्मी हस्तियों से लेकर राजनेताओं को रोज बेचने और खरीदने का गोरखधंधा किया करते थे उसी काली छाया के जब आगोश में आए तो उनका कोई भी अनुयाई उनके पीछे नजर नहीं आया।दुनिया से वे रुकसत हो गए।आज उन लोगो का नाम लेने वाला कोई नहीं बचा।यदि इस भौतिक और मायावी संसार में कुछ सत्य है तो वह है हमारे धर्म ग्रंथ और उनको मानने वाले भक्त।इसके अलावा सब छलावा है और यह छलावा दीर्घजीवी नही है।इसका अंत अत्यंत सन्निकत है।यह भीरू निष्प्रयोजन जनता को गुमराह और धर्म विमुख बनाता है।हमे गलत राजनीति का जबाव उसी तरीके से देना चाहिए न कि धर्मग्रंथों को जलाकर।ये ग्रंथ सार्वभौमिक हैं,शाश्वत हैं,।ये किसी के जलाए नही जलने वाले।प्रह्लाद को जलाने की क्या कम कोशिश हुई पर प्रह्लाद शाश्वत थे।
वास्तविकता तो यह है कि राजनेता जो चुनाव जीत जाते हैं उनकी आंखों में जनता का कोई मतलब नहीं होता। डा सत्यव्रत शर्मा ने अपने पुस्तक में एक जगह एक कविता लिखी है
वोट का पासा गलत पड़ता है
धर्मराज की तरह
हम हारते ही जाते हैं
ऐसा क्यों होता है
देखते देखते
हम अपने ही देश में
निर्वासित हो जाते हैं
देखते देखते
हवा की तरह लुप्त हो जाता है
चुनाव जीतने के बाद
हर नेता
आदमी की योनि से मुक्त हो जाता है।
चुनाव के बाद
रिटायर्ड बाप की तरह
नेता की आंख में
जनता कुछ जंचती नही है।
चुनाव जीतने के लिए अपने बाप तक को बेवकूफ बनाने में नेता सफल हैं।इसलिए पढ़ी लिखी जनता चाहे वह किसी धर्म और जाति से संबंध क्यो न रखती हो नेताओं पर उतना ही विश्वास करे जिससे उसकी आस्था को चोट न पहुंचे।मैं चित्रकूट के प्रत्येक अमावस मेले का प्रत्यक्षदर्शी हूं और यह दावे के साथ कह सकता हूं कि अमावस मेले में जो भीड़ होती है उसका अस्सी प्रतिशत भाग उन लोगों का होता है जो अपने आप को पिछड़ा,गरीब,और शुद्र कहते हैं।यह उनकी अपनी आस्था है जो मंदाकिनी नदी में स्नान करके श्री कामद नाथ की परिक्रमा लगाने से पूरी होती है।आप उनको जितना बरगलाएं वे इस क्रम को तोड़ने वाले नही।
देश में जाति की हवा प्रतिक्रियावादी लोग फैला रहे हैं।उन्हे अपने आप में हीनता महसूस होती है।कैसी हीनता क्योंकि उन्हें दारू मुर्गा मीट में आनंद आता है।अपने आप से उन्हे घृणा उत्पन्न होती है।फलस्वरूप उन्हे प्रतिक्रिया और जाति का सहारा लेना पड़ता है।लेकिन यह अंत नही है।उन जातियों में आपस में कलह है। जितने भी पिछड़े वर्ग के लोग हैं वे वास्तव में शूद्रों के घर खाना नही खा सकते।दिखावे और राजनीति के फायदे के लिए वे जहर भी पी सकते हैं पर सहज भाव से वे शूद्रों को गले नही लगा सकते न ही उनके घर रिश्ता कर सकते हैं। उनमें जबरदस्त ऊंच नीच का भाव है।
जनता को सतर्क होना होगा।आप राजनीति के उन मापदंडों को चुनें जो सर्व धर्म सर्व जाति समभाव में विश्वास आस्था रखते हों।अनावश्यक रूप से छोटी नौका लेकर सागर पार करने का निष्फल प्रयास न करें।
