दो गीत संग्रह के लोकार्पण और चर्चा का हुआ आयोजन
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भोपाल – दुष्यंत संग्रहालय में डॉक्टर रामवल्लभ आचार्य के दो गीत संग्रह के लोकार्पण और चर्चा का गरिमामय कार्यक्रम चल रहा था। राजेंद्र गट्टानी के चुटीले स्वागत उद्बोधन उपरांत कृतियों का लोकार्पण हुआ। आचार्य ने कृतियों पर व्याख्यान और कुछ गीतों का पाठ कर श्रोताओं को गुदगुदाया। उसके बाद समीक्षकों ने यथायोग्य प्रस्तुति दी। फिर बारी आई, खंडवा से पधारे डॉक्टर श्रीराम परिहार की।
धीर-गंभीर मुद्रा में उन्होंने बिना किसी कागज़-पत्रा ले श्रोताओं से बातचीत शुरू की। आरम्भ में ही उन्होंने आपस में बातचीत करने वाले श्रोताओं को हड़का दिया कि “भाई यदि आप बातें करेंगे तो फिर मैं बात नहीं कर पाऊँगा।”
यह अत्यंत महत्वपूर्ण बात थी, जो उन्होंने सही अवसर पर की। डॉक्टर परिहार अपनी स्मृति में और मस्तिष्क की सिराओं में संग्रहित ज्ञान विवेक से श्रोताओं को संबोधित कर रहे थे। जो एक साधना की तरह ही नहीं अपितु साधना ही थी। साधना में संकेंद्रित ध्यान किसी एक चीज पर होता है। स्मृति के पोर-पोर से बात सीधी निकल शब्द बनती है। जैसे श्रुति-स्मृति में शास्त्र जिंदा रहे आए थे। इस साधना में चींटी के चलने से भी व्यवधान हो सकता है।
आरम्भिक औपचारिक संबोधन के बाद उनकी छठी इंद्री में संग्रहित गीत विधान की गंगा प्रवाहित होने लगी। वे संबोधन में इतने डूब गए कि शब्द स्वमेव निकलने लगे। यह तब होता है जब साधक किसी विधा में आकंठ डूबा हो। यह एक दिन, महीना, साल की साधना नहीं बल्कि वर्षों की तपस्या होती है।
गीत और आचार्य जी के गीत, गीत विधान और नवगीत विधान, हिंदी गीत की धारायें, विचलन और हिंदी गीतों की शास्त्रीयता का निर्वाह का तंतु “प्रेम”, दैहिक नहीं आध्यात्मिक प्रेम। जिससे गीत उतरता है, लिखा नहीं जाता, गीत जिया जाता है जैसे बारिश की एक बूँद आस की प्यासी नदी को तृप्त करती है, मचलती नदी बेचैन समुद्र को तृप्त करती है, समुद्र फिर बादलों में बूँद भरता है और बूँद धरती पर गीत बनकर उतरती है, पृथ्वी और सम्पूर्ण रचना को ख़ुशबू से सराबोर कर देती है। गीत आत्मा की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। छन्द बंद बनकर स्वमेव निसृत होते हैं।
डॉक्टर परिहार ने गीतों को जिया है। उन्हें किसी संदर्भ की ज़रूरत नहीं थी। अदभुद संबोधन। बहुत दिनों बाद किसी को सुनकर तृप्ति हुई। आयोजकों को धन्यवाद।
भारत विमर्श भोपाल मध्य प्रदेश