May 11, 2024

जब 12 आने का गिलास ही फोड़ना था, तो फिर नोटबन्दी क्यों ?

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8 नवंबर 2016 को 500 और 1000 के 15 लाख 41 हज़ार करोड़ के नोट सर्कुलेशन में थे. जो वापस आए हैं नोटबंदी के बाद उनका वैल्यू है 15 लाख 32 हज़ार करोड़. यानी 99.30 प्रतिशत नोट वापस बैंकों के ज़रिए पहुंच गए. नोटबंदी के बाद 500 और 2000 के नए नोट छापने में ही 7,965 करोड़ खर्च हो गए. सरकार को 2016 के साल में नए नोट छापने में 3,421 करोड़ ही खर्च करने पड़े थे. 2016-17 में यह राशि डबल हो गई यानी 7,965 करोड़.

-नदीम अख्तर

नोटबन्दी: नोटबन्दी को भारत के सेंट्रल बैंक यानी रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया ने असफल बता दिया. रिज़र्व बैंक ने अपनी सालाना रिपोर्ट 2017-18 में बताया है कि कालाधन को भारतीय करेंसी सिस्टम से बाहर करने के लिए 500 और 1000 के जो नोट केंद्र सरकार ने बदले, उनमें से लगभग पूरे के पूरे नोट वापिस आ गए यानी 99.3 फीसदी पुराने नोट जनता ने जमा कर दिए. सिर्फ 0.7 फीसद नोट ही काला धन मानिए जो वापिस नहीं आए यानी 500 और 1000 रुपये के उन नोटों को या तो जला दिया गया होगा या पानी में फेंक दिया गया होगा या ज़मीन में गाड़ दिया गया होगा.

मतलब कि नोटबन्दी के समय 15.41 लाख करोड़ के जो पुराने नोट देश की अर्थव्यवस्था में सर्कुलेशन में थे, उनमें से 15.31 लाख करोड़ रुपये जनता ने जमा कराकर नए छपे नोट ले लिए, यानी पूरा पैसा जब जनता ने लौटा दिया तो फिर कालाधन कहाँ है, जिसे खत्म करने के लिए नोटबन्दी हुई थी ? मतलब कि कालाधन था ही नहीं. ये अब ऑफिशियल है. 500 और 1000 के जिन नोटों पर शक था कि वो गलत तरीके से लोगों ने छुपा कर रखे हुए हैं, जो वो सरकार और इनकम टैक्स को नहीं दिखाते हैं, वो बात पूरी तरह गलत निकली. काफी हीलाहवाली के बाद रिज़र्व बैंक ने इसकी पुष्टि कर दी.

अर्थात इसके मायने ये हुए कि देश की जनता ईमानदार है. उसके पास कालाधन नहीं था. रिज़र्व बैंक ने कितने पुराने नोट वापिस आए, उसे गिनकर बता दिया कि भैया! 97.3 फीसद नोट जनता ने लौटा दिए हैं. कालाधन नाम की चिड़िया कोई नहीं है यहां, एक पहलू ये भी है कि जिनके पास कालाधन होगा यानी छुपाकर रखे गए 500 और 1000 के पुराने नोट उनके पास अगर होंगे भी तो बड़ी चालाकी से और तिकड़म लगाकर उन्होंने अपने सारे पुराने नोट बदल लिए और नए नोट लेकर फिर उसे कालाधन के रूप में जमा कर लिया. और सरकार मुंह ताकती रह गयी.

ऐसे में सवाल ये उठता है कि बिना कुछ खाये पिये जब 12 आने का गिलास ही फोड़ना था तो फिर सरकार ने नोटबन्दी क्यों की ? उससे क्या हासिल हुआ, जब नतीजा सिफर ही रहा ? तिस पे कोढ़ में खाज ये कि सरकार ने नए नोट छापने में हज़ारों करोड़ रुपये खर्च कर दिए जो आम आदमी का पैसा था. देश का पैसा था. वो भी ऐसे नोट छापे जो रंग छोड़ने लगा. फिर कहा गया कि जो रंग छोड़ रहा है, वही असली नोट है. बार-बार सरकार के नुमाइंदों ने बयान बदले. कभी कहा गया कि ये कैशलेस इकॉनमी को बढ़ावा देने के लिए है तो कभी कहा गया कि इससे बाजार में मौजूद नकली नोट खत्म हो जाएंगे. पर यहां भी असफलता हाथ लगी. ना तो भारत की जनता कैशलेस इकॉनमी अपना पाई और ना नकली नोट ही पकड़ में आ पाया.

और इसके परिणाम क्या रहे ? आप के नजर के सामने है. जनता ने क्या भोगा ? कहीं कोई बाप बेटी की शादी की खातिर नए नोट निकालने के लिए एटीएम लाइन में मर गया तो कहीं पूरी की पूरी स्माल स्केल इंडस्ट्री बेल्ट ही बन्द हो गयी. मालिक के पास ना तो अपने स्टाफ को तनख्वाह देने के लिए रुपये थे, ना उनको अपने माल का भुगतान नए नोट में हो पा रहा था और ना वह कच्चा माल खरीद पा रहा था. उद्योग पे ताले लग गए. खुदरा व्यापारी दुकान खोल के बैठते थे, पर उनका समान नहीं बिकता था. जब जनता के पास मुहल्ले की दुकान से आटा चावल खरीदने के पैसे यानी नए नोट ना हों, तो कपड़ा-जूता कौन खरीदेगा भाई! इस नोटबन्दी ने पहले से लहूलुहान अर्थव्यवस्था को बिस्तर पे लिटा दिया.

ये सरकार और उसके नीति निर्धारकों के लिए बहुत बड़ा शर्मिंदगी कि बात है. वो कौन ज्ञानी ध्यानी विज्ञानी था, जिसकी सलाह पे रातों रात सरकार ने नोटबन्दी कर दी. खबर तो ये भी आयी थी कि देश के वित्त मंत्री और रिज़र्व बैंक के गवर्नर तक को आखरी क्षणों तक इसकी जानकारी नहीं थी. फिर वो कौन महापुरुष था, जिसकी खुशफहमी पे इतना बड़ा फैसला लिया गया ? ज़ाहिर है ऐसे कई सवाल अभी उठेंगे और सरकार की मुश्किल बढ़ेगी. सबसे बड़ी बात जनता को कैसे समझया जाएगा कि नोटबन्दी क्यों की गई और ये सफल क्यों नहीं हुई?

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