March 28, 2024

वयस्कों में ही नही बच्चों में भी बढ़ रहा अवसाद

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प्रो नंदलाल मिश्र
महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय
विश्वविद्यालय, चित्रकूट,सतना, म० प्र०

अवसाद एक ऐसा मनोविकार है जो इंसान को न मरने देता है न ठीक से रहने देता है।यह ऐसी स्थिति उत्पन्न करता है कि व्यक्ति अपनी भूख प्यास भी भूल जाता है।इंसान का जीवन अस्त व्यस्त हो जाता है और वह आत्मकेंद्रित हो जाता है।यह कैसे इंसान में प्रवेश करता है उसे ठीक से नहीं मालूम। न तो यह बुखार है न तो कोई घाव है न ही शुगर है और न तो हृदय रोग है।तो यह है क्या?यह एक मनोविकृति है जो मन से उत्पन्न होता है।इसके कारण अनेक हैं पर जन्म लेता है मन से।मनुष्य के शरीर में मन एक ऐसा तत्व है जो उसे बहुत आगे भी पहुंचा देता है तो किन्ही परिस्थितियों में उसे बहुत नीचे भी गिरा देता है।मन संकल्प कर ले तो पहाड़ को भी तोड़ सकता है और यदि वह व्यथित रहने लगे तो सर्वनाश भी कर सकता है।अर्थात मानव के अंदर मन के संकल्प और विकल्प का अच्छा खासा महत्व है।इसीलिए कहा जाता है कि ऊंचे सपने देखो।कहा जाता है जैसा अन्न वैसा मन।इसका आशय यह हुआ कि मन का संबंध अन्न से भी है।इसलिए मन को शांत रखना बहुत आवश्यक है।किंतु मन को एकाग्रचित रख पाना आसान नहीं है।मन चंचल होता है।वह किसी बिंदु पर अत्यधिक देर तक ठहरता नही है।वह मक्खी की तरह उड़कर कभी यहां तो कभी वहां चला जाता है।इसका वेग भी अत्यंत वेगवान है।इसलिए हमारे शरीर में जो मन है वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण और हमारे स्वास्थ्य का आधार भी है।
इसी मन के कमजोर पड़ जाने के कारण हमें नाना प्रकार की व्याधियों से जूझना पड़ता है।यदि आपका मन स्वस्थ है आत्मविश्वास से भरा हुआ है तो बड़ा से बड़ा रोग भी आपके नियंत्रण में आ जाता है पर यदि कमजोर हो जाय तो अनेक व्याधियों के चंगुल में फंसा देगा।अब हम यह देखेंगे कि किन दशाओं में यह अत्यधिक चंचल होकर हमे कमजोर बनाता है तथा किन दशाओं में हमे यह मजबूती से खड़ा रखता है।
आप महसूस करते होंगे कि पुराने जमाने में लोग बुखार सिरदर्द सर्दी बालक को जन्म देने वाली माताएं डिलीवरी के समय पेट दर्द इत्यादि समस्याओं से अधिक जूझते थे।शुगर की बीमारी बहुत कम लोगो में देखी जाती थी। बी पी हृदय रोग,किडनी की बीमारी अल्सर अस्थमा इत्यादि कम लोगो को ही होता था।किंतु आज के समय में ये बीमारियां आम हो गई हैं बल्कि घर घर में आ गई हैं।यदि इसका कारण खोजेंगे तो सबसे बड़ा कारण जीवन शैली निकल कर आएगा।कहा भी जाता है की खान पान बदलते जीवन शैली ने अनेक बीमारियों को जन्म दिया है।लोगो के जीने का तरीका बदल गया है।जीवन चर्या ने नया स्वरूप धारण कर लिया है।विज्ञान की उपलब्धियों ने जीवन को आसान बनाया है पहले इतनी टेक्नोलॉजी विकसित नही थी।लोग शारीरिक श्रम अधिक करते थे।सोचने के लिए कृषि,पशुपालन और छोटे मोटे उद्योग हुआ करते थे।इसलिए मन का भटकाव भी कम था।अर्थात मन और मस्तिष्क को बहुत चिंतन मनन की जरूरत ही नहीं थी।सोचने समझने चिंतन करने और अनुभूति में लाने के विषय अत्यंत सीमित थे।ऐसी दशा में मन और मस्तिष्क का भटकाव कम था।
आज विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने मानव की जरूरतों से भी बढ़कर ऐसे ऐसे आविष्कार कर दिए हैं कि उन्हें अपनाने में लोगो को खुशियां अधिक मिलती हैं।पहले की तुलना में लोगो की क्रय शक्ति में इजाफा हुआ है तो दूसरी तरफ सरकार ने लोगों को लोन देने के रास्ते को सरल और लचीला बना दिया है जिससे लोग मन चाही सामग्री धड़ल्ले से खरीद रहे हैं।भूमंडलीकरण के चलते कोई भी सामान दुर्लभ नही रह गया है। हर प्रकार की सब्जियां हर मौसम में मिल रही हैं। सामान एक देश से दूसरे देश में आराम से और शीघ्रता से पहुंच रहा है।जिसकी कल्पना तक लोग नही करते हैं वह भी सामग्री बाजार में उपलब्ध है।ऐसे हालात में मन और मस्तिष्क पर दबाव भी बढ़ रहा है कि ऐसे बदलते माहौल में समायोजन कैसे किया जाय।उपर से डिजिटल युग जो त्वरित प्रतिक्रिया चाहता है।इस बदलते युग में सब कुछ बदल गया।परंपराएं बदल गईं।संस्कृति बदल रही है।समाज के मानक बदल गए।लोगो की जीवन शैली बदल गई।कृषि में क्रांतिकारी बदलाव आ गए। हर उत्पाद हाइब्रिड हो गया।देशी कुछ बचा नही।यहां तक की पशुधन भी हाइब्रिड हो गए। न गुरु गुरु रह गए न चेला चेला रह गए।अब टीचर और स्टूडेंट समाज में रह गए हैं जिनको न पढ़ना है न पढ़ाना है। यानि समाज, परिवार जातियां,धर्म और व्यक्ति सभी स्वतंत्र एवं स्वच्छंद हो गए।ऊपर से डिजिटलीकरण और भूमंडलीकरण का दबाव व्यक्ति को समाज में बने रहने के लिए प्रतियोगिता कराता है।आज समाज में वही बना रह सकता है जो फिटेस्ट है।कमजोर और कमजोर हो रहा है नतीजा अवसाद और तनाव के रूप में सामने आ रहा है।व्यक्ति को क्या करना है और उसे क्या करना चाहिए इस पर मतैक्य नही है।जिधर जाना चाहे जा सकता है जो करना है कर सकता है।वह स्वतंत्र है।परिणाम चाहे जो हो उसे अपने मन वाली करनी है।इस बदलते वक्त में मन और मस्तिष्क को अच्छे बुरे का निर्णय तो करना ही होगा।अब के समय में क्या अच्छा है यही तो यक्ष प्रश्न है।इसलिए मन और मस्तिष्क दोनो परेशान हैं।नतीजा डिप्रेशन और दुश्चिंता।
आत्महत्या की बढ़ती दरें यह स्पष्ट करती हैं कि समाज में अवसाद किस तरह फैल चुका है। न यह युवाओं को अपनी आगोश में ले रहा है बल्कि अब बच्चों को भी अपना निशाना बना रहा है।दो हजार बाईस के अंतर राष्ट्रीय आंकड़े यह प्रदर्शित करते हैं कि भारत में सर्वाधिक अवसाद के रोगी हैं।यहां अवसाद का प्रतिशत 4.5 है जो चीन से भी अधिक है।चीन में 4.20प्रतिशत अवसाद के रोगी है जिनकी संख्या54815739है वहीं भारत में 56675969 अवसाद के रोगी हैं।हालाकि यदि प्रतिशत में इसे देखें तो यूक्रेन पहले स्थान पर है तो यूनाइटेड स्टेट्स 5.90प्रतिशत के साथ दूसरे स्थान पर है।
हाल के दिनों में कोरोना के दौरान अवसाद के रोगियों में बेतहाशा वृद्धि हुई है।घरों में कैद रहना,किसी अपने खास का असमय चले जाना, कोरोना का खौफ,अपने को यह बीमारी न पकड़ ले ये तमाम कारण तनाव और डिप्रेशन को बढ़ाने वाले रहे हैं।जो रोगी रोग के चपेट में आ गए और किसी तरह बच गए उनमें से नब्बे प्रतिशत लोग कम या अधिक अवसाद से पीड़ित हो गए हैं।वैसे बच्चों में अवसाद होने के प्रमुख कारण हैं कि उन्हें बाह्य जगत अर्थात आस पड़ोस के बच्चों के साथ खेलने का अवसर न मिल पाना,घर में कैद रखना, दाई और धाय द्वारा परवरिश,घर पर उस संस्कार का न मिल पाना जिससे बच्चों का मन मस्तिष्क प्रफुल्लित रह सके,मोबाइल से चिपके रहना,विद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा की विषय वस्तु,विद्यालयों का वातावरण ,विद्यालय में सहपाठियों के बीच सामाजिक आर्थिक गैप का होना तथा मां बाप द्वारा अपनी इच्छाओं का लादना,तथा अनावश्यक प्रतिस्पर्धा को जन्म देना प्रमुख है।
अभिभावकों को इस पर ध्यान देना जरूरी है अन्यथा मोबाइल पर परोसी जाने वाली सामग्री न जाने कौन सा दिन दिखाए जिसके लिए आप तैयार भी न हों।बच्चों को अधिक से अधिक एक्सपोजर दें।उन्हे मिट्टी में खेलने दें।उन्हे आपस में लड़ने दें।घर में उनकी दिनचर्या को सेट करने का प्रयास करें।विश्वास मानिए यदि आप उनके लिए वक्त निकाल पाएंगे तो उनका और साथ में आपका भी भला होगा।

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