नेता “ह्यूबरिस सिंड्रोम” से ग्रस्त हो जाए तो रक्तपिपासु भीड़ का निर्माण करता है
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शशि शेख़र (वरिष्ठ पत्रकार)
“ह्यूबरिस सिंड्रोम” आमतौर पर ऐसे राजनेताओं, उद्योगपतियों और ताकतवर लोगों में पाया जाता है, जो अपनी ताकत और सत्ता का इस्तेमाल स्वयं के महिमामंडन में करते हैं. ऐसे लोग अपने इमेज को ले कर बहुत कंशस होते है. उनमें अत्याधिक आत्मविश्वास होता है, अपने निर्णय को ले कर बहुत ही कांफिडेंट होते है, मसिहाई भाषण देने की कोशिश करते है, खुद को मसीहा के तौर पर पेश करते है.
खैर, सवाल ये है कि ह्यूबरिस सिंड्रोम से ग्रस्त कोई नेता क्या कर सकता है?
इस सिंड्रोम से ग्रस्त कोई ताकतवर आदमी चाहे तो अपने कृत्रिम तरीके से निर्मित मसिहाई छवि के सहारे, मसिहाई भाषण के सहारे देश में एक ऐसी भीड़ तैयार कर सकता है, जिसे न देश से मतलब है, न धर्म से, न जाति से. एक ऐसी भीड़ जो रक्तपिपासु होती है. उसे एक ऑबजेक्ट चाहिए. वह ऑब्जेक्ट हमेशा एक निर्दोष इंसान होता है. ऑबजेक्ट किसी भी जाति-धर्म का हो सकता है. वह भीड़ जात-धर्म निरपेक्ष है. क्या पहलू खान, क्या बुलन्द शहर के एसआई सुबोध कुमार.
अब ये रक्तपिपासु भीड़ बनती कैसे है?
जाहिर है, भीड का भी एक रोल मॉडल होता है, वो नायक होता है. नायक यदि “ह्यूबरिस सिंड्रोम” का शिकार हो तो यह काम बहुत मुश्किल नहीं रह जाता. क्योंकि लोकतंत्र में भले बहुमत का शासन हो लेकिन जब नेता की मसिहाई छवि लोकतंत्र पर हावी होने लगती है तो एक छोटी सी निरंकुश भीड़ भी बहुमत से अधिक ताकतवर हो जाती है.
मैं इसका कोई उदाहरण दूं, उससे पहले ब्रिटीश चिकित्सक और सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता David Owen ह्यूबरिस सिंड्रोम की एक और विशेषता बताते है. उनके मुताबिक इस सिंड्रोम से ग्रस्त व्यक्ति अपने अतिआत्मविश्वस की वजह से किसी पॉलिसी (नीति/कार्यक्रम) के नट-बोल्ट (कमी-बेसी) पर ध्यान नहीं देता और अंतत: वह पॉलिसी बेकार सबित हो जाती है.
जैसे, आप दिल्ली या मोतीहारी की किसी सड़क पर जा रहे है. अचानक आपको मूत्र त्याग की जरूरत होती है. दूर-दूर तक आपको सार्वजनिक शौचालय नहीं दिखता. आप क्या करेंगे? कोशिश करेंगे कि सड़क किनारे या किसी कोने में सबसे छुप कर मूत्र विसर्जन कर ले. लेकिन, आप ऐसा करके दरअसल, स्वच्छ भारत अभियान को ठेंगा दिखा रहे है. हो सकता है कोई अत्याधिक स्वच्छताप्रेमी आपको ऐसा करते देख ले और वह आपको बाधित करे. ये भी संभव है कि वो अकेला अदमी स्वच्छ भारत अभियान के नाम पर एक भीड़ जमा कर ले और तब आप बुरी तरह से एक भीड़ के हाथों फंस सकते है. दिल्ली के मुखर्जी नगर में एक रिक्शेवाले को इसी तरह मार दिया गया था.
ऐसा क्यों होता है? क्या आज से पहले सड़क पर लोग मूत्र विसर्जन नहीं करते थे? करते थे. क्या तब स्वच्छता अभियान नहीं थे. बिल्कुल थे. लेकिन, आज लोग इतने उत्तेजित क्यों है. ध्यान रहे, इस तरह की हरकत को अगर आप जनचेतना में वृद्धि मानेंगे तो अंजाने में ही सही, आप एक हिंसक भीड़ को वैधता प्रदान कर देते है. आज लोग इसलिए इतने उत्तेजित है क्योंकि “ह्यूबरिस सिंड्रोम” की वजह से उनका रोल मॉडल एक ऐसी नीति को भी अद्भुत, भूतो न भविष्यति बना और बता देता है, जिसमें कई व्यवहारिक कमियां है या हो सकती है.
अब बुलन्द शहर का मसला देखिए. इसके केन्द्र में भी “गाय” है. गोकशी की बात की जा रही है. तो सवाल ये है कि जब लगभग सभी प्रदेशों में गोहत्या पर प्रतिबंध है, यानि इसे ले कर कानून है, तब क्या एक हिंसक भीड़ गोकानून लागू कराएगी? फिर पुलिस-अदालत-नेता-सीएम क्या करेंगे? जनता का काम है पुलिस की आंख-कान बनना. कानून और अपने अधिकार को ले कर सचेत रहना. आपातस्थिति में देश की, स्वयं की, समाज की रक्षा करना. लेकिन, यहां क्या हुआ? यहां एक भीड़ ने कानून हाथ में लेते हुए कानून के रखवले को ही मार दिया. अब जिस भीड़ ने मारा, उसकी कोई जाति-धर्म नहीं थी. वो बस रक्तपिपासु थी. उसके मुंह अखलाक, पहलू खान का खून लग चुका था,. अब उसे सिर्फ खून चाहिए, चाहे वो सुबोध सिंह का हो या किसी तिवारी-पांडे का या किसी पासवान का.
अब यहां पर “ह्यूबरिस सिंड्रोम ने कैसे काम किया? किया…बखूबी काम किया. हमारे राजनीतिक नायकों ने खुद को मसीहा के तौर पर पेश करते हुए गाय को देश का केन्द्रीय मुद्दा बना दिया. जहां गाय की रक्षा के लिए कड़े कानून बनने चाहिए थे, गोधन के बेहतर इस्तेमाल के लिए बेहतर जन योजनएं बननी चाहिए थी, वहां गाय को अस्मिता का सवाल बन दिया गया. ये अलग बात है कि देश दूसरी तरफ बीफ एक्सपोर्ट में दुनिया का नंबर वन देश बन गया. लेकिन, उस छोटी भीड़ के लिए इतना ही सन्देश काफी था. उस भीड़ के लिए ये सन्देश लाइसेंस टू किल बन गया. नतीजा, कल पहलू खान और अखलाक थे तो आज बुलन्दशहर का सब इंस्पेक्टर सुबोध सिंह है…कल कोई और होगा.
तो ह्यूबरिस सिंड्रोम…के बारे में गूगल कीजिए. थोडा पढिए कि ये क्या है…ताकि वह सच आप समझ सके….जो शायद जब आप समझेंगे, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी.