माँ …हमारे भीतर
1 min read
विवेक चतुर्वेदी
नाना ले आए थे अपना जल
आटा नानी की देह का था
सानकर बनी थी माँ …
नन्हीं, नम और नरम सी लोई
हथेलियों ने स्नेह, ताप और दाब दिया
तो बढ़ता रही देह … पर रही सजल ही
जब पिता के गर्म तवे पर रखी गई
और उलट पुलट गृहस्थी की आंच मे
तो जल सब सूख गया
माँ रोटी हुई…और भूख की राह
हम सबके भीतर उतरती गई
वो मिटती गई … हम सब बनते गए
अब तो माँ नहीं है … यूँ तो सपने में भी कभी नहीं आती
पर राह पर पड़े
डरे हुए किसी पिल्लु को उठाकर
छाती से लगा लेता हूँ
तब मालूम होता है
कितनी माँ है हमारे भीतर।