April 29, 2024

शिक्षकों पर सामाजिक पुनर्रचना का गुरूतर दायित्व

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    प्रो एन एल मिश्र
महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय चित्रकूट,सतना म प्र

आज शिक्षक दिवस के अवसर पर समस्त गुरुओं को नमन करते हुए उस महान विभूति को प्रणाम करता हूं जिसके कार्यों और दायित्व के चलते शिक्षको को समाज में एक गौरवशाली स्थान मिला है।हमारे देश के अग्रणी विद्वानों में से एक सर्वपल्ली डा राधाकृष्णन मूलतः एक शिक्षक थे।लेकिन जब वह प्रशासन में आए तो भी उन्होंने अपनी एक अलग पहचान बनाई। डा राधाकृष्णन जी शिक्षको के दायित्व को समाज के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण मानते थे।उनका कहना था कि शिक्षक ही समाज की वह धुरी है जिसके चारों तरफ दुनिया घूमती है।एक एक व्यक्ति को शिक्षित करना और मानव को इंसान बनाने की जिम्मेदारी शिक्षक के कंधे पर होती है।इसलिए शिक्षक समाज का वह हिस्सा है जिसको शिक्षक बनने और शिक्षक होने में एक लंबा वक्त लगता है।अपने अंदर शिक्षक के गुण को भरने में दशकों का समय लगता है।जब वह एक अच्छा विद्यार्थी होता है तभी एक अच्छा शिक्षक भी बन पाता है।राधाकृष्णन जी के बताए रास्तों पर चलना ही एक अच्छे शिक्षक का धर्म है।
     यों तो भारत शिक्षा का एक महत्वपूर्ण स्थल रहा है और अपनी नानविध विद्याओं के लिए प्रसिद्ध रहा है।चाहें वह कोई युग रहा हो एक से बढ़कर एक विद्वान इस देश में पैदा हुए जो अन्यत्र दुर्लभ है। वेदों की रचना हो,पुराणों का काल हो या फिर उपनिषदों का समय रहा हो ये ग्रंथ बेमिशाल हैं जो न सिर्फ मानव को मानव बनाने में सक्षम रहे हैं अपितु इन्होंने भारतीय संस्कृति और परंपरा को गढ़ने में अपना बहुमूल्य योगदान दिए हैं।महाभारत काल की विद्या को देखें तो हमें सहज भरोसा नही होता कि वे अस्त्र शस्त्र वास्तव में थे।हम आज विज्ञान और प्रौद्योगिकी की ऊंचाई छू रहे हैं लेकिन फिर भी अभी वहां नही पहुंच पाए हैं।आज के युग में भी शिक्षकों ने ऐसे ऐसे आविष्कार किए हैं और कर रहे हैं जो आश्चर्य में डालते हैं।लेकिन शिक्षकों का महत्वपूर्ण समय अब आ रहा है आ चुका है जहां समाज उनके तरफ ललचाई आंखों से देख रहा है।समाज के मूल्य बिखर रहे हैं,सामाजिक मान्यताएं अपने निचले पायदान पर आ खड़ी हुई हैं।आदमी आदमी को पहचानने में नाकाम हो रहा है।इंसानियत चुनौती बनकर उभर रही है।आदमी आदमी का दुश्मन बना हुआ है। हर जगह फसाद में हम उलझ चुके हैं।कारण खोजने पर कोई कारण नजर नही आता किंतु दो टमाटर के खींचतान में कत्ल तक हो जा रहे हैं।स्वार्थ ने इंसान को इतना बौना बना दिया है कि हम कहने पर मजबूर हैं……..
  खुदा हमको ऐसी खुदाई न दे
  कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे।
  अपने और पराए के द्वंद्व में घिरकर मानव ऐसे ऐसे घिनौने कृत्य करने लगा है कि उसकी कल्पना से भी रूह कांप उठती है।
   हम कहने लगे हैं……
   जिंदगी से बड़ी सजा ही नहीं
   और क्या जुर्म है पता ही नही
    इतने हिस्सों में बंट गया हूं मैं
    मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं
    जिसके कारण फसाद होते हैं
   उसका कुछ अता पता ही नही।
    जब समाज मानकों से भटकने लगे,इंसानियत अपनी परिभाषा मांगने लगे,परिवार विघटन को विकास मानने लगे,लोगों को यह भ्रम होने लगे कि शोषण ही सुख का पर्याय है,तब समाज की पुनर्रचना आवश्यक हो जाती है।युगानुकुल चलना तो ठीक है लेकिन जब परस्पर पूरकता छिन्न भिन्न होने लगे तो शिक्षक की भूमिका बढ़ जाती है।आज शिक्षक दिवस के अवसर पर शिक्षक भूमिका के विवेचन की जरूरत है।
    पहले के शिक्षकों में सैद्धांतिक मूल्य भरे रहते थे।बिना किसी लालच के वे अपने शिष्यों को समय की परवाह किए बिना निपुण करने में लगे रहते थे किंतु आज का शिक्षक अपने को पूरी तरह बदल लिया है।शिक्षा को लोगों ने विक्रय की वस्तु बना दी है।भारतवर्ष में शिक्षा अब बेची जा रही है इसमें शिक्षकों और गैर शिक्षको सबका हाथ है।शिक्षा के गिरते स्तर और गुणहीन शिक्षा देने से सामाजिक क्षरण तेजी से बढ़ा है।समाज और परिवार टूट रहे हैं।ऐसे में ऐसे शिक्षक कहां से लाए जाएं जो चाणक्य की भूमिका निभाए। भग्न होते परिवारों और लोगों को सम्हालना होगा अन्यथा शिक्षक दिवस का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा।शिक्षा की व्यवस्था हमें सोचने पर मजबूर करती है कि इसका जिम्मेदार कौन है।जब शिक्षक एक नौकर की हैसियत से ज्ञान देने का प्रयास करेगा तो उसका ज्ञान कोई लेने वाला नही है क्योंकि देश के युवकों को मात्र उदर भरण कैसे करें,कैसे हम आर्थिक बचत करें,और कैसे हम इतना अर्जित कर लें कि हमारी पीढ़ियां बैठ कर खाए जब इसका पाठ पढ़ाया जाएगा तो सामाजिक पुनर्रचना संभव न होगी।
       आज शिक्षकों को सबक लेने की जरूरत है कि वह ऐसी पीढ़ी तैयार करें जो देश की दशा और दिशा दोनो को बदलने में सक्षम हो सके।तभी शिक्षक अपनी सार्थकता सिद्ध कर सकेंगे वरना समाज के अन्य लोगों की तरह वह भी चौराहे की राजनीति करता नजर आएगा। हे समाज निर्माता उठो,चिंतन करो और देश की नई पीढ़ी को वह ज्ञान दो जो समाज और देश की पुनर्रचना में अपनी भागीदारी दर्ज कर सके।

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