विचारधारा की प्रयोगशाला में मिलेगा महागठबंधन के जीत का फार्मूला !
1 min read
-अभिषेक कुमार
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों का फैसला जनता ने सुना दिया है। कांग्रेस और भाजपा के बीच होने वाली कांटे की टक्कर में कांग्रेस ने बाजी मार ली है। भाजपा अपने गढ़ को बचा नहीं पाई। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ हिंदी भाषी प्रदेशों में भाजपा के गढ़ माने जाते रहे हैं। लेकिन फिलहाल भाजपा की असीम संभावनाओं का सूर्यास्त हो गया है। आगामी लोकसभा चुनाव की रणनीति इसी जीत से तय मानी जा रही थी। क्योंकि 2013 में इन्हीं राज्यों में विजयी रथ ने भाजपा को 2014 का रास्ता निकाल कर दिया था। भाजपा के इन तीनों गढ़ों में विजय हासिल कर कांग्रेस ने लोकसभा चुनावों का शंखनाद कर दिया है। कांग्रेस के लिए यह उत्साहित होने का समय है उसने पंद्रह साल बाद मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव जीता है। लेकिन भाजपा के लिए फिलहाल आत्ममंथन का समय कहा जा सकता है। भाजपा का उत्साहित खेमा शायद ही आम चुनावों की चिंता से इंकार करे, लेकिन राज्य स्तर पर हुई यह हार, भाजपा और उसके सहयोगी दलों की पेशानी पर गंभीर चिंता की रेखाएं बना सकती है। मध्य प्रदेश में भाजपा ने कांटें की टक्कर की, फिर भी कांग्रेस ने भाजपा को पटखनी दे दी। राजस्थान में वसुंधरा राजे के खिलाफ हवा ने कमल की खुशबू का रूख मोड़ दिया, वहीं छत्तीसगढ़ में केंद्रीय पैनल की उदासी और अजित जोगी और बसपा के गठबंधन ने बाधा पहुंचाई और रमण सिंह सरकार की नैया डूब गई।
कांग्रेस की इस जीत के कई मायने हैं लेकिन इस जीत ने कांग्रेस के सामने कई बड़ी चुनौतियां भी रखी है। कांग्रेस द्वारा तीनों राज्यों में किये वादे को पूरा करना राहुल गांधी के लिए पहला महत्वपूर्ण प्रश्न है। कांग्रेस ने किसानों, युवाओं से कई वादे किये हैं, उन वादों पर खड़ा उतरना राहुल के लिए बड़ी चुनौती होगी। राहुल गांधी ने हालांकि इस जीत के बाद अपने नेतृत्व के प्रश्न पर विराम लगा दिया है और कांग्रेस को इससे महागठबंधन में मार्जिन लेना आसान हो जायेगा। लेकिन दलों को इक्टठा करना और सर्वसम्मत एक नेता का चुनाव का करना राहुल गांधी के लिए राहुल के सामने टेढ़ी खीर होगी। तीन अहम राज्यों में बड़ी जीत मिलने के बाद कांग्रेस राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने जीत के बाद संबोधन में भाजपा से जंग को विचारधारा की जंग कहकर लड़ाई जारी रखने की बात कही। कांग्रेस ने 2014 में केंद्र में मोदी के आने के बाद काम्यूनिलिज्म बनाम सेक्यूलरिज्म कार्ड खेला था, हालांकि उनका यह दांव उनपर ही उलट बैठ गया, लेकिन राहुल गांधी ने इसे हमेशा विचारधारा की लड़ाई कही। राहुल गांधी 2019 के लोकसभा चुनावो को भी कुछ इसी संदर्भ में गढ़ना चाह रहे हैं। विचारधारा की लड़ाई एक ऐसी लकीर है जिसकी धुरी पर राहुल महागठबंधन को विस्तार देने के साथ-साथ, मोदी के लिए सहयोगियों की फेहरिस्त छोटी करना चाह रहे हैं। राहुल गांधी इसी समान विचारधारा के कारण राज्य स्तर पर अपने सहयोगियों के गठबंधन को मजबूत करना और इसे महागठबंधन में बदलना चाहते हैं। क्योंकि कमोबेश सेक्यूलरिज्म की विचारधारा को अपनाने वाली पार्टियो की भारत में लंबी सूची है। विचारधारा की बात छेड़कर राहुल ने कई बातों को स्पष्ट किया। राहुल ने महागठबंधन की सरंचना को सुदृढ़ बनाने के लिए विचारधारा को अहम माना है, ताकि खरीद-फरोख्त की स्थिति में भी जीत कांग्रेस की हो। साथ ही कई क्षेत्रीय दलों की एकजुटता से बना महागठबंधन यदि विचारधारा की प्रयोगशाला में एक पैमाने में आया तो कांग्रेस 2019 के जीत का रास्ता आसान बना सकने में सक्षम होगी। विचारधारा की लड़ाई में नेता के चयन के सवाल को गौण करना कांग्रेस के लिए फायदेमंद हो सकता है। विपक्ष और जनता द्वारा महागठबंधन के नेता की तलाश की जाती रही है। लेकिन महागठबंधन के अंदर चेहरे का चयन भाजपा के लिए 2019 के चुनावी जंग को बहुत हद तक आसान कर देगा, दूसरी ओर महागठबंधन में नेता का चयन गठबंधन की सेहत के लिए शायद दुरुस्थ साबित न हो पाये। भाजपा इस चुनाव को सिर्फ विकास की रेखा पर लड़ना चाहती है, इन नतीजों के बाद देखना गौरतलब होगा। वहीं कांग्रेस भी भाजपा के साथ केवल विकास की धूरी पर लड़ना नहीं चाहेगी। क्योंकि कांग्रेस को मोदी की लहर अवश्य कम दिखती हो मगर मोदी प्रभाव को कमत्तर बनाने के लिए उसे विचारधारा और विजन को धारण करना जरूरी होगा।
भाजपा को अपनी इस हार का आत्ममंथन करना जरूरी है। भाजपा सीटों के मामले में ज्यादा दूर नहीं रही है लेकिन मतों के प्रतिशत में भाजपा को बड़ी हार मिली है। 2013 में मध्यप्रदेश में 44 प्रतिशत वोट लाने वाली भाजपा को 2018 में 41 प्रतिशत मतों ने हार का मुंह दिखाया। राजस्थान में 2013 में 45 प्रतिशत लाने वाली भाजपा को 2018 में 38 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ में 2013 में 41 प्रतिशत का 2018 में 33 प्रतिशत वोट पर सिमट जाना चिंता का सबब बनकर उभरी है। वहीं भाजपा को इससे पूर्व उत्तरप्रदेश के उप चुनावों में हार, सहयोगियों का अविश्वास के साथ-साथ बेरोजगारी और मंहगाई एवं जनहित से जुड़े मुद्दे पर विचार करना होगा। भाजपा के लिए यह चुनाव चेतावनी भरा है, यदि भाजपा सिर्फ भाषणबाजी में उलझी तो जनता ने अपना विकल्प चुन लेने का मन बना लिया है।