May 13, 2024

शाह अस्त हुसैन, बादशाह अस्त हुसैन. दीन अस्त हुसैन दीँ पनाह अस्त हुसैन.

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शाह अस्त हुसैन, बादशाह अस्त हुसैन. दीन अस्त हुसैन दीँ पनाह अस्त हुसैन..
सरदार नादाद दर्द दर दस्त-ए-यज़ीद. हक्का कि बिनाए ला-इलाह अस्त हुसैन..

हाफ़िज समीउर रहमान साबरी
        इस्लामिक स्कॉलर

ख्वाज़ा मोईनुद्दीन चिश्ती ने हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शान में फारसी भाषा में यह चार पंक्तियां कही थीं. आप ने हुसैन अलैहिस्सलाम को केवल दीन ही नहीं बल्कि दीन को पनाह देने वाला महान शहीद भी करार दिया.आप ने अपने इन चार लाइन में पुरे कर्बला को प्रभाषित कर दिया.

इस्लामी इतिहास में कर्बला वो महत्वपूर्ण मोड़ हैं जहां सत्य और असत्य का अंतर खुलकर सामने आ जाता है. इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के बलिदान से इस्लाम धर्म को एक ओर जहां नया जीवन मिला वही दूसरी ओर असत्य पर चल रहे यज़ीद को निर्णायक हार का सामना करना पड़ा. इतिहास गवाह है कि धर्म और अधर्म के बीच हुई जंग में जीत हमेशा धर्म की ही हुई है. चाहे वह श्री राम हों,अर्जुन हों या फिर हजरत पैगंबर मोहम्मद सल्ल. के नवासे हजरत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम. जीत हमेशा धर्म की ही हुई है और आगे भी होती रहेगी.

कर्बला के मैदान मे सत्य के लिए जान न्योछावर कर देने की जिंदा मिसाल बने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने तो जीत की परिभाषा ही बदल दी. कर्बला में जब वे सत्य के लिए लड़े तब सामने खड़े यजीद और उसके 60 हजार से अधिक सैनिक के मुकाबले ये लोग महज 123 जिसमे 72 मर्द-औरतें और 51 बच्चे थे. इतना ही नहीं, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के इस दल में तो एक छह माह के बच्चे अली असगर भी शामिल थे. वह बच्चा भी अपने पूरे परिवार के साथ तीन दिन का भूखे व प्यासे थे. जब हज़रत हुसैन अली असगर की प्यास की शिद्दत को सहन न कर सके, तब वे उसे अपनी गोद में लेकर उसके लिए पानी मांगने मैदान में आए. क्रूर यज़ीदी लश्कर के एक सिपहसालार ने उस मासूम बच्चे को पानी देने के बजाए उसके गले पर तीर चलाकर उसे हज़रत हुसैन की ही गोद में शहीद कर दिया. आतंकवाद व निर्दयता की ऐसी दूसरी मिसाल करबला के सिवा और कहां मिल सकती है?

ज़रा कल्पना कीजिए कि जिस अली असगर की मां से हज़रत हुसैन उनका बच्चा इस वादे के साथ गोद में लेकर मैदान-ए-जंग में गए हों कि वे अभी उसे पानी पिलाकर वापस ला रहे हैं. और बाद में वही हज़रत हुसैन अपने उस मासूम बच्चे को कब्र में दफन कर अपने परिवार की महिला सदस्यों के कैंप में खाली हाथ वापस गए हों और अपना लहू से लथपथ शरीर दिखाते हुए उन्होंने अली असगर के कत्ल की दास्तान सुनाई हो उस स्थान पर कैसी दर्दनाक स्थिति रही होगी?

उस समय के आतंकवादी रूपी सीरियाई शासक यजीद जो खुद को इस्लाम का पैरोकार कहता था, उसने क्रूरता की वह सारी हदें पार कर दीं जिसे सुन कर इंसानियत आज भी कांप उठती है. यजीद और यज़ीद की फौज ने पैगम्बर मोहम्मद सल्ल. और उनके नवासे के साथ जो गद्दारी की उसे ताकयामत तक भुलाया नहीं जा सकता है.

अनैतिकता की हद तो यह थी कि शहीदों की लाशों को दफन तक न होने दिया. इतिहासकार लिखतें हैं कि शहीदों के सरों को काट कर भालों की नोक पर रख़ा गया था. जबकि उनके धड़ और लाशों को घोड़ों की नालों से कुचल दिया गया और उन्हें बगैर दफ़न के छोड़ दिया गया. उनकी औरतों और बच्चों को बंदी बना कर उनपर भरपूर अत्याचार किया गया. बाद मे उन्हें कर्बला से दमिश्क (सीरिया) तक की कठिन यात्रा पर ले जाया गया. जहाँ उन्हें एक साल से भी अधिक समय तक बंदी बना कर रख़ा गया. इन बंदियों में कर्बला में बचे केवल एक पुरुष थे जो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पुत्र इमाम जैनुल आबेदीन थे. उनके बच जाने का कारण उनकी बीमारी थी जो कर्बला में अधिकतर बेहोशी की हालत में थे. इस बीमार इमाम पर कर्बला के जंग के बाद उनकी बेहोशी, बीमारी और कमजोरी की हालत में बार बार जुल्म किया गया. शायद इसी लिए कई इतिहासकारों का मानना है कि करबला मे इस्लामी आंतकवाद की पहली इबारत लिखी गयी.

यज़ीद एक दमनकारी शासक था, खुले आम अपनी पापी गतिविधियों में लिप्त था, जैसे शराब पीना, निर्दोष लोगों को डराना और उनकी ह्त्या करना और विद्वानों का मजाक उड़ाना। फिर भी अपने वह आप को सही उत्तराधिकारी घोषित करता था और मुस्लिम समाज के नेता होने का दावा करता था. इसके दमन और सैन्य बल के कारण, भयभीत समाज चुप था और डर के कारण कुछ नहीं कर पाता था. यज़ीद ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से कहा के उसकी बययत करें यानी उसके प्रति अपनी निष्ठा साबित करें. इमाम हुसैन ने ये कह कर बययत से इंकार कर दिया कि हम पैगंबर के घराने से अहलेबैत हैं. मेरे जैसा कोई भी शख्स यजीद जैसे किसी भी शख्स के प्रति निष्ठा नहीं साबित कर सकता है. बल्कि मौत को आनंदपूर्वक शहादत की तरह देख सकता हूँ. इमाम हुसैन नें जिस मूव्मेंट की शुरुआत की वह केवल यह नहीं थी कि घर से निकलो, मैदान में जाओ और शहीद हो जाओ बल्कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम बहुत बड़े मक़सद के लिये निकले थे.

इमाम हुसैन का मक़सद केवल शहादत नहीं थी,बल्कि वह इस्लाम के बचाव के लिए यजीद के मुकाबले मे आये थे. उन्होने यज़ीद के सारे गलत कार्यों को उजागर कर दिया और बताया की सत्य की विजय कैसे होती है. सत्य पर रहने वाले कैसे होते हैं. कहते हैं कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने यजीद की अनैतिक नीतियों के विरोध में मदीना छोड़ा और मक्का गए. उन्होंने देखा कि ऐसा करने से यहाँ भी खून बहेगा वो नहीं चाहते थे, की मक्का और मदीना जैसे पाक जगह पर खून खराबा हो. उन्होंने भारत आने का भी मन बनाया लेकिन उन्हें घेर कर कर्बला लाया गया और यजीद के नापाक इरादों के प्रति सहमति व्यक्त करने के लिए कहा गया. जिसको हजरत हुसैन ने पूरी तरह से नकार दिया.

शहादत के बाद भी इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की कामयाबी बुलंदी पर है. जंग जीत कर भी हार गया यजीद. यजीद कामयाब होता तो उस की कामयाबी के असरात होते लेकिन आज न उस की क़ब्र का निशान है न उस के ज़ायरीन हैं, न कोई उस का नाम लेवा है, न उस की बारगाह है, न उस का तज़किरा है. इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम आज भी हर तरह से फ़तह और कामयाब हैं, हर मुहर्रम उन की फ़तह का ऐलान करता है. हर हक उन ही के गिर्द चक्कर लगाता है. जालिम उन ही के नाम से घबराता है. ग़रीबों को सहारा और हर निहत्थे इंसान के लिये उन की दास्तान हथियार का काम करती है.

हज़रत हुसैन अलैहिस्सलाम की कुर्बानी आज भी इस बात की याद दिलाती रहती है कि इस्लाम अपनी शहादत देकर दीन को अयोग्य, ज़ालिम, क्रूर,अधार्मिक व अपवित्र लोगों के हाथों में जाने से रोकने का नाम है. बेगुनाहों को बेवजह कत्ल करना इस्लाम हरगिज़ नहीं. लोगों में शिक्षा का प्रसार कर ज्ञान का दीप जलाना इस्लाम की पहचान है. स्कूलों व विद्यालयों को ध्वस्त कर अंधकार फैलाना इस्लाम ने नहीं सिखाया. औरतों की इज़्ज़त-आबरू व उनके पर्दे की रक्षा करने का नाम इस्लाम है. औरतों को गोली से उड़ाने,उनपर सार्वजनिक रूप से कोड़े बरसाने तथा उन्हें शिक्षा हेतु स्कूलों में जाने से रोकने का नाम इस्लाम नहीं. कुल मिलाकर हम निश्चित रूप से यह कह सकते हैं कि वास्तविक इस्लामी शिक्षाओं की सीख हमें हुसैनियत की राह पर चलने व उनसे प्रेरणा प्राप्त करने से मिल सकती है. जबकि यज़ीदियत से प्रेरणा हासिल करने वाला इस्लाम कल भी वही था जो करबला में यज़ीदी पक्ष की ओर से क्रूरता की इंतेहा करते हुए दिखाई दे रहा था और आज भी वही है जो लगभग पूरे विश्व में आतंकवाद, अत्याचार तथा बर्बरता का पर्याय बना हुआ है.

आप गौर करेंगे इस्लाम धर्म के नाम का इस्तेमाल जब-जब साम्राज्यवादी ताकतों द्वारा, शासकों द्वारा, अपनी सत्ता का विस्तार करने वाले लोगों के द्वारा, आक्रमणकारी व लुटेरे प्रवृति के राजाओं द्वारा किया गया है, तब-तब इस्लाम का वैसा ही भयावह चेहरा सामने आया है जैसाकि आज दुनिया के विभिन्न देशों में दिखाई दे रहा है. और जब-जब यह इस्लाम पैगंबरों,इमामों, वलियों, सूफियों व फकीरों के दरों से होकर गुज़रा है तो कहीं उसे करबला ने पनाह दी है तो कहीं नजफ व मदीने की गलियों में इसने संरक्षण पाया है. और सिर चढक़र बोलने वाला इस्लाम का यही जादू आज भी दुनिया की तमाम मजिस्दों, खानक़ाहों, दरगाहों की रौनक़ बना हुआ है तथा दुनिया को प्रेम व भाईचारे का संदेश दे रहा है. जबकि शहनशाहों व सत्तालोभियों का इस्लाम कहीं गुफाओं में पनाह लेता फिर रहा है तो कहीं दूसरे देशों द्वारा प्रतिबंधित किया जा रहा है. कहीं गुप्त कमरों में बैठकें करता फिर रहा है तो कहीं जगलों में आतंकवादियों के प्रशिक्षण शिविर संचालित कर रहा है.

इंसान को बेदार तो हो लेने दो.
हर कौम पुकारेगी हमारे हैं हुसैन..

जी है हुसैन अलैहिस्सलाम सिर्फ अहले इस्लाम वाले ही मुहब्बत नहीं करते. इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते है कि अपने समय के महान ब्रिटिश इतिहासकार एडवर्ड गिब्बन ने अपनी पुस्तक डेकलाईन एंड फौल आफ रोमन अम्पाएर लन्दन के वोलूम 5 मे उसने लिखा, किसी भी समय और बदले हुए दौर के लिए हुसैन अ:स की दुखद मौत का दृश्य, कड़े से कड़े दिल के पाठक के दिल में उनके लिए सहानुभूति जगाने के लिए काफी है.

महात्मा गांधी ने 1924 में अपनी लेखनी यंग इंडिया में कर्बला की जंग को ऐसे दर्शित करते हुए लिखा, मै उसके जीवन को अच्छी तरह समझना चाहता हूँ, जो मानवजाति में सर्वोत्तम है और मानवता के लाखों दिलों पर एक निर्विवादित राज किया करता है, हुसैन की निर्भीकता,इश्वर पर अटूट विश्वास और स्वयं को बलि पर चढ़ा कर हुसैन ने इस्लाम को बचा लिया.

झांसी की रानी महारानी लक्ष्मी बाई को इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से असाधारण आस्था थी. प्रोफेसर आर शबनम ने अपनी पुस्तक भारत में शिया और ताजिया दारी मैं झांसी की रानी के संबंध में लिखा है कि यौमे आशूरा और मुहर्रम के महीने में लक्ष्मी बाई बड़े आस्था के साथ मानती थी और इस महीने में वे कोई भी ख़ुशी वाले काम नहीं करती थी. इससे जाहिर है कि हिंदुस्तान के सभी धर्मों में हज़रत इमाम हुसैन से अकीदत और प्यार की परंपरा रही है.

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