October 5, 2024

भीमराव आंबेडकर की 127वीं जयंती और 21वीं सदी के नये भारत की दशा

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अनुज अवस्थी, नई दिल्ली: संविधान निर्माता और दलितों के चिंतक माने जाने वाले बाबा साहेब भीमराव अांबेडकर की 127वीं जयंती पर दलित समुदाय से लेकर देश के कोने-कोने में उन्हें याद किया गया। बाबा साहेब आंबेडकर उस दौर में दलितों के इकलौते चिंतक थे इस बात को नकारा नहीं जा सकता। हलांकि ये भी सच जब भारत आजादी के सपने बुन कर एक नई सुबह की और बड़ रहा था तो उस दौरान बाबा साहेब ने देश की मुख्यधारा की राजनीति में अहम भूमिका निभा कर देश को एक कुशल और विकसित रास्ते पर चलाने के लिए नित नये आयाम गड़े। इसके लिए हम जितना भी उनका आभार व्यक्त करें कम होगा।

हमें समझना होगा कि 1947 से लेकर अब तक यानि कि 21वीं सदी के भारत का सफर बेहद ही लंबा और कठनाई पूर्ण रहा है। हम इस लंबे सफर का आंकलन करते-करते भूल गए कि आंबेडकर किस महान हस्ति का नाम है। मौजूदा वक्त में देश के हालात और राजनीति में इस कदर का दलित बनाम दूसरी जातियों का बंबडर आया हुआ है जिसने 125 करोड़ देशवासियों की बुध्दि को कुंद कर दिया है। इस दलित बनाम दूसरी जाति की लड़ाई लोगों को बेहद ही असंवेदनशील और असहज बना दिया है।

दरअसल, हम अब दलित समाज को राजनैतिक चश्मे से देखने लगे हैं। मौजूदा वक्त में देश के सभी राजनैतिक दल दलितों को वोट बैंक के नजरिए से देखने लगे हैं। जब राजनीति और धर्म या समुदाय का मिलन होता है तो विस्फोट होता है। और इस विस्फोटक राजनीति की वजह हर रोज तमाम लोग या तो अपनी जान गवां देेते हैं या किसी और की जान ले लेते हैं। ये राजनैतिक दल लगातार दावा तो करते हैं कि उनके शासन में दलित पूर्ण रुप से सुरक्षित हैं। लेकिन असल में हकीकत कुछ और ही है।

इन दिनों देश में दलित समुदाय को लेकर आए दिन हिंसा की खबरें सामने आ रही हैं। कभी रिजर्वेशन के नाम पर हिंसा होती है तो कभी  दलित के मंदिर में जाने से दंगा शुरु हो जाता है। इतना ही नौबत यहां तक आ गई है कि इस लोकतंत्र कहे जाने वाले देश में दलित दूल्हे को अपनी शादी में घोड़ी पर बैठने के लिए भी अदालत से इजाजत लेनी पड़ रही है। जब भीमराव अांबेडकर साहब अपने दलित समाज के लिए संविधान में कुछ प्रावधान के बारे में सोच रहे होंगे तो उन्होंने ऐसे भारत की परिकल्पना भी नहीं की होगी।

इस देश के राजनेता और कुछ अराजक तत्व इस तरह के कारनामे करके आखिर सिध्द क्या करना चाहते हैं मेरी समझ के तो परे हैं। क्या हम ये जताना चाहते हैं कि देश सिर्फ अगड़ी जातियों का है, दलितों और पिछड़े वर्ग का यहां कोई मोल नहीं। अगर हम ऐसी मानसिकता रखते हैं तो हमें चुल्लूभर पानी में डूब मरना चाहिए। इस देश के हर नागरिक को समझना होगा कि देश की आजादी के समय जितना योगदान अगड़ी जाति वालों का था उतना ही योगदान पिछड़ी जाति वालों का भी था। इस देश पर हर नागरिक का बराबर का हक है।

अगर हम चाहते है कि हमारा देश अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर एक नई अर्थव्यवस्था के रुप में उभरे, ये देश विकास की पटरी पर सरपट दोड़े। तो इसके लिए हम सबको जाति धर्म भुलाकर कंधे से कंधा मिलाकर चलना होगा। अगर हम एक नए भारत को उदय होता देखना चाहते हैं तो सबसे पहले हमें आपसी बैर भुलाना होगा।

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