May 16, 2024

हिटलर के करिश्माई भाषण का भी चुनाव पर खास असर नहीं होता था….

1 min read
Spread the love
भाजपा को नरेंद्र मोदी जी के करिश्माई भाषणों से बहुमत नहीं मिला था.
उस वक़्त कांग्रेस नैतिक तौर पर ध्वस्त हो चुकी थी.
देश में अन्ना आन्दोलन/रामदेव आन्दोलन/किसान आन्दोलन का चौतरफा जोर था.
जनता उब चुकी थी. मनमोहन सिंह की चुप्पी से, उनके मंत्रियों के भ्रष्टाचार से.
शशि शेख़र

वरिष्ठ पत्रकार

विचार: हाल ही में जर्मनी के पॉलिटिकल साइंस के दो प्रोफेसरों ने अमेरिकन पॉलिटिकल साइंस रिव्यू में एक पेपर पेश किया है. इन दोनों ने 1927 से 1933 के बीच हिटलर के पब्लिक एपिएरेंस (सार्वजनिक सभाओं में दिए गए भाषण) की एनालिसिस की है. इस अवधि में हिटलर ने (5 नेशनल पार्लियामेंट्री चुनाव) करीब 455 सभाएं की. 4.5 मिलियन लोगों ने सशरीर उपस्थित हो कर भाषण को सुना, तकनीकी सुविधा (रेडियो आदि) के जरिए सुना होगा, वह अलग. बावजूद इसके चाहे 1930 का चुनाव हो या 1932 का जुलाई या नंबर का दो बार का हुआ चुनाव या 1933 का चुनाव, हिटलर कभी भी अकेले दम पर बहुमत नहीं पा सका.

 

1932, जुलाई का चुनाव: हिटलर की नाजी पार्टी को 37 फीसदी वोट और 230 सीटें मिली. कुल सीटें थी 608. बहुमत के लिए चाहिए था 305 सीटे. जबकि, अकेले कम्युनिस्ट को 89 और एसपीडी को 133 सीटें मिली थी.

 

1932 नवंबर का चुनाव: हिटलर को 196 सीटें मिली. यानी पिछले चुनाव से 34 सीटें कम हो गई. वोट प्रतिशत भी 4 फीसदी गिर गया. कुल सीटें थी 584 और बहुमत के लिए जरूरी था 293 सीट. हिटलर की नाजी पार्टी बहुमत से 97 सीटें पीछे थी.

 

ध्यान देने की बात है कि 1930 से 1932 के बीच ही हिटलर ने सर्वाधिक भाषण दिए थे. तकनीक का, हवाई जहाज का सर्वाधिक इस्तेमाल किया था. झूठे वादे और लोगों को बरगलाने का काम किया था. लोगों ने उस पर भरोसा भी किया. 1930 में उसका वोट प्रतिशत 2 फीसदी था, सीटें सिर्फ 12 थी. आगे के चुनाव में वो सब बढा, उसके कैडर बढे, पार्टी का संसाधन बढा. लेकिन, नंबर 1932 के निर्णायक चुनाव में, सैकडों करिश्माई भाषण देने के बाद भी उसकी सीटें पिछले चुनाव से कम हो गई. हालांकि, राजनीतिक परिस्थितिवश हिटलर चांसलर बना. ये अलग बात है कि 1933 के चुनाव में भी किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला. लेकिन, इसके बाद जर्मनी और दुनिया के इतिहास-भूगोल-राजनीति में क्या बदलाव आए, हम सब जानते है.

 

इस रिपोर्ट का मूल आशय ये है कि हिटलर के उदय में तत्कालीन राजनीतिक-जर्मन की घरेलू स्थिति और वैश्विक व्य्वस्थाक्रम का अधिक योगदान था, बजाए हिटलर के करिश्माई-करीनाई भाषण के.

 

अब बात स्वदेश की.

जिन लोगों को यह लगता है कि 2014 के चुनाव में भाजपा को नरेंद्र मोदी जी के करिश्माई भाषणों से बहुमत मिला था, वे थोड़ा और राजनीति-समाज को समझे. अगर ज्यादा समझदार होने का दावा करते है तो अपने दावे पुनर्पुष्टि करे. ये वो दौर था, जब कांग्रेस नैतिक तौर पर ध्वस्त हो चुकी थी. देश में अन्ना आन्दोलन/रामदेव आन्दोलन/किसान आन्दोलन का चौतरफा जोर था. जनता उब चुकी थी. मनमोहन सिंह की चुप्पी से, उनके मंत्रियों के भ्रष्टाचार से. फिर विपक्ष का अपना आत्ममुग्ध भाव भी काम कर रहा था.

 

ऐसे में कोई भी एक चेहरा सामने आता, जो सिर्फ वादे करता, जुमले उछालता, कॉरपोरेट का समर्थन होता, आरएसएस जैसा जमीनी संगठन साथ होता तो उसकी पार्टी शानदार प्रदर्शन कर ही लेती. इसलिए, मुझे आज तक मोदी जी का एक भी भाषण न करिश्माई लगा, न कंटेंट ड्रिवेन. आपको लगता है तो आपको मुबारक.

 

अब विपक्ष की बात….

अकेला लालू यादव ही ऐसे नेता हैं, जिंन्होंने जमीनी सच्चाई को समझा. यह कि वोट बंटेगा तो भाजपा जीतेगी. इसका सफल उदाहरण बिहार में दे दिया. आज मायावती जी को सम्मानजनक सीटें चाहिए. मुझे समझ नहीं आता कि आज शून्य सीट ले कर, लोकसभा और राज्यसभा से बाहर रह कर, मायावती कौन सा सम्मान पा रही है. मैं समझ सकता हूं कि सतीश चन्द्र मिश्रा जैसे लोग उन्हें अमेरिकन पॉलिटिकल साइंस रिव्यू की यह रिसर्च रिपोर्ट पढ़ने नहीं देंगे. और नीतीश जैसे नेता तो भाषणों के करिश्मा से इतने अभिभूत हो गए कि पूछिए ही मत...तो कुल मिला कर ये कि…..
कम लिखा है, ज्यादा समझिए….

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Copyright © All rights reserved Powered By Fox Tech Solution | Newsphere by AF themes.