आजादी के 77 साल।एक अदद सड़क को मोहताज आदिवासी।बीमार हो या मृतक,चार कंधे ही है सहारा
1 min readचित्रकूट – देश में दो भारत हैं। एक अमीरों का भारत हैं,और दूसरा गरीबों खासकर,आदिवासियों का।अमीर भारत में सारी सुख सुविधाएं मौजूद हैं,चकाचौंध है,अमीर भारत मंगल और चांद पर बसने की हसरतें पाल रहा है।तो वहीं दूसरी तरफ गरीब खासकर आदिवासियों का भारत है,जो आजादी के 77 सालों बाद आज भी जीवन की मूलभूत सुविधाओं,सड़क,बिजली,पानी के लिए जूझते और जद्दोजहद करते दिखाई देते हैं।बावजूद इसके देश की राजनीति और नेताओं के लिए यह वर्ग आज भी केवल एक वोट बैंक है,और उससे ज्यादा कुछ भी नहीं।देश में आज भी तमाम ऐसे आदिवासी इलाके हैं जहां लोगों को नारकीए जीवन जीने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।
पूरा मामला सतना जिले की नगर परिषद चित्रकूट के वार्ड क्र.15 की आदिवासी बस्ती थरपहाड़ का है।जहां आजादी के 77 वर्षों बाद भी लोगों को नारकिय जीवन जीने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है,विकास क्या है,कैसा होता है और किस चिड़िया का नाम है,बस्ती के आदिवासियों को नहीं मालूम है।बस्ती में कोई बीमार हो जाए या फिर किसी की मौत हो जाए, तब फिर उस स्थित मे बस्ती से मुख्य सड़क तक लाने और ले जाने के लिए केवल चार कंधों का ही सहारा बचता है।गौर तलब है कि बस्ती निवासी 16 वर्षीय बलबीर मवासी पिता राम चरण मवासी,जयपुर राजस्थान के बीरनसर कस्बे में मजदूरी कर रहा था। बीरनसर कस्बे में ही बीते दिनों बलबीर मवासी की मौत हो गई थी,जिसका शव शनिवार को वाहन से ग्राम थर पहाड़ लाया गया।लेकिन दुर्भाग्य से मृतक बलबीर मवासी का शव वाहन से उसके घर तक नहीं ले जाया जा सका।कारण कि आजादी के 77 सालों बाद भी आज तक आदिवासी बस्ती थर पहाड़ में आवागमन के लिए सड़क मार्ग उपलब्ध नहीं है।जिसके बाद मृतक बलबीर मवासी के शव को चारपाई पर लेटाकर चार लोगों द्वारा या चार कंधों पर लगभग दो किलो मीटर दूर ग्राम थर पहाड़ तक ले जाया गया।ग्राम थर पहाड़ सहित इस देश में आज भी न जाने ऐसे कितने आदिवासी इलाके हैं जहां ऐसे ही या कहा जाए तो इससे भी बदतर हालात हैं।जहां लोग नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं।इसके बाद भी देश विकास की दौड़ में तीव्र गति से दौड़ रहा है।
जावेद मोहम्मद विशेष संवाददाता भारत विमर्श चित्रकूट मध्य प्रदेश