पैसों की खनक पर संविधान की डगर…
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(अनुज अवस्थी): जिन्होंने लूटा सरेआम मुल्क को अपने, उन लफंदरों की तलाशी कोई नहीं लेता।
गरीब लहरों पर पहरे बिठाए जाते हैं, समुंदरों की तलाशी कोई नहीं लेता।
एक लंबे अरसे से विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र यानि की भारत के बारे में बहुत कुछ सुनता और पड़ता आ रहा हूं। जैसे-जैसे बड़ा हो रहा हूं तैसे-तैसे देश के हालात और परिस्थितियों को टटोल कर जानेने की कोशिश कर रहा हूं, कि ये देश आखिर खड़ा कहां है। बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर द्वारा निर्मित संविधान में तो ये देश लोकतांत्रिक, धर्म निरपेक्ष, समान्य रुप से सबको न्याय देने वाला है, लेकिन असल में शायद ही ऐसा कोई दिन जाता होगा जिस दिन इस संविधान की धज्जियां न उड़ती हों। इस भारतवर्ष में धर्म निरपेक्षता दूर-दूर तक नहीं दिखाई देती और समानता के नाम पर न्याय तो जैसे आवारा और बांझ हो चला है।
पैसे की खनक पर चुटकी बजाते ही निर्दोष को जेल और दोषी को बेल मिल जाती है। किसी नेता के एक इशारे पर इस देश में एक समुदाय के लोग दूसरे समुदाय पर कुत्ते के माफिक भौंकने लगते हैं। मामला शांत होने पर हम सविंधान की दुहाई देकर कहने लगते हैं कि संविधान सर्वोपरि है। अरे इस देश के नागरिको, दिनों दिन क्यों अपनी संविधान की आत्मा को कुचलते जा रहे हो। फाड़ फेको ऐसे आइन को जिसकी यहां कोई कद्र नहीं। जला डालो इसके धर्मनिरपेक्षता और समान रुप से हक देने वाले पन्नों को। आग लगा दो ऐसे न्यायतत्र में जिसमें सिर्फ गरीबों और दबे कुचले लोगों के लिए ही सजा का प्रावधान हो। हमें नहीं चाहिए ऐसे हक जो हमारे हक में ही न हों।
बाबा साहेब ने आइन की रचना इसलिए की थी ताकि इसके माध्यम से हम इस भारतवर्ष को महान और शक्तिशाली बना सकें, मगर यहां पर तो संविधान को ही नपुंसक बना दिया। इन रईसों और सत्ताधारियों ने नोटो तले हमारे संविधान की चिता जला डाली। कहने को तो ये लोकतांत्रिक व्यवस्था के आगे बाध्य हैं, लेकिन असल में अपनी मर्जी के मालिक जैसे चाहते हैं वैसे इस देश को चलाते हैं।